अस्पृश्यता का उन्मूलन
संदर्भ: जाति व्यवस्था के मूल में विद्यमान अस्पृश्यता (छुआछूत) का औपचारिक उन्मूलन भारतीय संविधान की एक केंद्रीय और क्रांतिकारी विशेषता थी। यद्यपि इसे प्रायः संविधान सभा के नेतृत्व की दूरदर्शिता का परिणाम माना जाता है, किन्तु वास्तव में यह प्रावधान डॉ. बी.आर. अंबेडकर जैसे व्यक्तित्वों के नेतृत्व में दशकों के संगठित दलित संघर्ष के बाद हासिल की गई एक कठिन जीत थी।
अस्पृश्यता क्या है?
अस्पृश्यता हिंदू जाति पदानुक्रम का एक घातक एवं अपमानजनक पहलू है जो ऐतिहासिक रूप से “अस्पृश्य” या “दलित” कहलाने वाले समूहों को सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर धकेल देता है। यह सामाजिक एवं धार्मिक अलगाव की एक प्रणाली है जो निम्नलिखित विशेषताओं से युक्त है:
- अनुष्ठानिक ‘अपवित्रता’ की धारणा: यह विश्वास कि कुछ समुदाय अपनी प्रकृति या पेशे के कारण जन्मजात ‘अपवित्र’ हैं और उनके साथ शारीरिक या सामाजिक संपर्क ऊँची जातियों के लिए अशुद्धि उत्पन्न करता है।
- सामाजिक बहिष्कार और पृथक्करण: इस विश्वास के कारण व्यापक प्रथाएँ विकसित हुईं, जैसे : सार्वजनिक स्थानों (कुएँ, सड़कें, मंदिर) तक पहुँच से वंचित करना, आवास में अलगाव (अलग बस्तियाँ), और सामाजिक दूरी का कठोर पालन।
- आर्थिक शोषण: अस्पृश्य समुदायों को ‘अपवित्र’ या तुच्छ माने जाने वाले कार्यों—जैसे हाथ से मैला ढोना, चमड़े का काम, मृत पशुओं का निस्तारण—तक सीमित कर दिया गया, जिससे सामाजिक उन्नयन की संभावनाएँ लगभग समाप्त हो गईं।
- धार्मिक स्वीकृति: इसे ऐतिहासिक रूप से धार्मिक सिद्धांतों और शास्त्रीय व्याख्याओं के माध्यम से उचित ठहराया गया था, जिसमें इस स्थिति को पिछले जन्मों के “कर्म” का परिणाम बताकर इसे अपरिवर्तनीय बना दिया गया था।
- संविधान सभा के दौर में रूढ़िवादी पक्षधरोंने ‘सामुदायिक अस्पृश्यता’ (सार्वजनिक जीवन में बहिष्कार) और ‘धार्मिक अस्पृश्यता’ (अनुष्ठानिक शुद्धता से जुड़ी प्रथाएँ, जैसे मंदिर-प्रवेश या मृत्यु/मासिक धर्म से संबंधित कर्मकांड) के बीच एक महत्वपूर्ण भेद किया। उनका तर्क था कि दूसरी श्रेणी धार्मिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण न किया जा सकने वाला मूल तत्व है।
अस्पृश्यता उन्मूलन की आवश्यकता
नवगठित भारतीय राष्ट्र के लिए अस्पृश्यता का उन्मूलन निम्नलिखित समवर्ती कारणों से एक अनिवार्य, गैर-समझौतावादी आवश्यकता थी:
- लोकतांत्रिक गणराज्य की आधारशिला: भारत सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और समानता के सिद्धांत पर आधारित एक लोकतंत्र के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहा था। ऐसी कानूनी और सामाजिक रूप से स्वीकृत व्यवस्था का अस्तित्व, जो करोड़ों नागरिकों को जन्मजात रूप से ‘अपवित्र’ और असमान मानती थी, लोकप्रिय संप्रभुता और समान नागरिकता के मूल विचार के प्रति एक मौलिक विरोधाभास था। जैसा कि एक रूढ़िवादी याचिका में स्पष्ट रूप से यह डर जताया गया था कि यह (अस्पृश्यता का उन्मूलन) ‘भारी बहुमत’ को उनके विरुद्ध सशक्त कर देगा।
- सतत दलित संघर्ष का परिणाम: यह मांग कोई उपहार नहीं थी, बल्कि निरंतर संगठित लामबंदी का परिणाम थी। डॉ. अंबेडकर जैसे नेताओं ने दशकों तक विरोध प्रदर्शनों, बहसों और आंदोलनों (जैसे पानी तक पहुँच के लिए महाड़ सत्याग्रह, मंदिर प्रवेश आंदोलनों) का आयोजन किया, जिससे जाति के विनाश का मुद्दा एक केंद्रीय राजनीतिक विषय बन गया। संविधान सभा में किए गए प्रावधान इसी व्यापक जन-उभार की अभिव्यक्ति थे।
- नैतिक और सामाजिक न्याय की अनिवार्यता: अस्पृश्यता एक निर्मम व्यवस्था थी, जिसने जनसंख्या के एक विशाल वर्ग के आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा को गहराई से आहत किया। एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए इसका उन्मूलन सामाजिक एकीकरण की दिशा में पहला और अनिवार्य कदम था।
- रूढ़िवादी प्रतिरोध का प्रतिवाद और राष्ट्रीय पहचान की स्थापना: रूढ़िवादी समूहों के घोर विरोध ने, जातिगत प्रथाओं को बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यक सुरक्षा की मांग करते हुए बड़ी संख्या में याचिकाएँ दायर कीं, एक स्पष्ट वैचारिक विकल्प प्रस्तुत किया।
- संविधान निर्माताओं को यह तय करना था कि नया भारत पदानुक्रमित ‘धर्म-राज्य’ के रूप में स्थापित होगा या धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक गणराज्य के रूप में। अस्पृश्यता का उन्मूलन पहले विकल्प का निर्णायक रूप से अस्वीकार था।
भारत से इसे संवैधानिक एवं विधिक उपायों के माध्यम से कैसे समाप्त किया गया?
अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए संवैधानिक घोषणा, विधिक निषेध और सकारात्मक कार्रवाई इन तीनों का सशक्त संयोजन अपनाया गया:
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संवैधानिक आधारस्तंभ:
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- अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन): यह सबसे प्रत्यक्ष और पूर्ण संवैधानिक अधिदेश था। इसमें घोषणा की गई कि “ ‘अस्पृश्यता’ समाप्त कर दी गई है और इसका किसी भी रूप में अभ्यास निषिद्ध है। अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी भी निर्योग्यता को लागू करना कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा।” इसने इस विषय को विधायी बहस के दायरे से बाहर कर दिया और इसे एक मौलिक संवैधानिक सिद्धांत बना दिया।
- अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध): धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव को निषिद्ध करता है। साथ ही यह राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जाति/जनजाति सहित) के उत्थान हेतु विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 16 (अवसर की समानता): सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता सुनिश्चित करता है तथा पिछड़े वर्गों के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 23 (मानव तस्करी का निषेध): जाति-आधारित पेशों से जुड़ी बलात श्रम जैसी प्रथाओं के विरुद्ध लड़ने में सहायक है।
- धार्मिक स्वतंत्रता बनाम सामाजिक सुधार: यद्यपि कुछ रूढ़िवादी वर्ग अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) के अंतर्गत “धार्मिक अस्पृश्यता” के संरक्षण की माँग कर रहे थे, फिर भी संविधान ने इस अधिकार को अन्य मौलिक अधिकारों, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन रखा।
- इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि अनुच्छेद 25(2)(b) राज्य को “सामाजिक कल्याण और सुधार” अथवा “सार्वजनिक प्रकृति के हिंदू धार्मिक संस्थानों को सभी वर्गों और समुदायों के लिए खोलने” से संबंधित कानून बनाने का स्पष्ट अधिकार देता है। यह प्रावधान मंदिर प्रवेश कानूनों को संभव बनाने का प्रत्यक्ष विधिक उपकरण था।
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सक्षम विधायी प्रावधान:
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- अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955: यह अस्पृश्यता की प्रथा को दंडित करने के लिए बनाया गया पहला कानून था। इसमें मंदिरों, दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, जल-स्रोतों आदि तक पहुँच से रोकने पर दंड का प्रावधान किया गया।
- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1976 (PCRA): यह 1955 के अधिनियम का एक सशक्त संशोधन था। इसने दंड को बढ़ाया, अपराधों को संज्ञेय (Cognizable) और गैर-समझौता योग्य (Non-compoundable) बनाया, और लोक सेवकों पर ऐसे अपराधों की जाँच करने का कर्तव्य डाला।
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व्यापक विधिक हथियार:
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- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (पीओए अधिनियम): यह मानते हुए कि सामाजिक बहिष्कार और हिंसा अस्पृश्यता को लागू करने के नए रूप थे, इस अधिनियम ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध विशिष्ट अपराध (जैसे उन्हें अखाद्य पदार्थ खाने के लिए मजबूर करना, यौन शोषण आदि) बनाए और इसके लिए सख्त दंड का प्रावधान किया।
- सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण): दंडात्मक उपायों के पूरक के रूप में, शिक्षा, सरकारी नौकरियों और विधायिकाओं में संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण (अनुच्छेद 330, 332, 335) का उद्देश्य जाति-आधारित पदानुक्रम की सामाजिक-आर्थिक नींव को कमजोर करना तथा वंचित वर्गों को भौतिक और राजनीतिक सशक्तिकरण प्रदान करना है।
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