गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार
संदर्भ: सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक बेहद संवेदनशील मामला आया है, जिसमें वह निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) से जुड़े ऐतिहासिक निर्णयों को लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयों से जूझ रहा है। यह मामला हरीश राणा से जुड़ा है, जो पिछले 12 वर्षों से स्थायी रूप से निष्क्रिय (Persistent Vegetative State) अवस्था में हैं।
चर्चा में क्यों:
- यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण मृत्यु के अधिकार को कानूनी मान्यता दी है, लेकिन इस अधिकार को व्यवहार्य बनाने के लिए लागू होने वाली जटिल प्रक्रियाओं ने इसे लगभग अप्राप्य बना दिया है।
- यह स्थिति न्यायिक घोषणा और जमीनी हकीकत के बीच के बड़े अंतर को उजागर करती है तथा जीवन के अंतिम चरण में व्यक्ति की स्वायत्तता का सम्मान करने हेतु सरल कानूनी प्रावधानों की आवश्यकता पर बहस को जन्म देती है।
इच्छामृत्यु क्या है?
इच्छामृत्यु से तात्पर्य असाध्य बीमारी से उत्पन्न निरंतर और असहनीय पीड़ा से राहत देने के लिए किसी व्यक्ति के जीवन को जानबूझकर समाप्त करना है। इसे निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है:
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- सक्रिय इच्छामृत्यु: जानबूझकर किया गया हस्तक्षेप (जैसे घातक इंजेक्शन देना) जिससे मृत्यु हो जाए।
- निष्क्रिय इच्छामृत्यु: जीवनरक्षक चिकित्सकीय उपचार को रोक देना, जिससे मूल बीमारी के दुष्प्रभाव में मृत्यु हो जाए।
- स्वैच्छिक इच्छामृत्यु: रोगी स्पष्ट और पूर्ण जानकारी के साथ अपनी सहमति से इच्छामृत्यु स्वीकार करे।
- गैर-स्वैच्छिक इच्छामृत्यु: ऐसी परिस्थिति में दी गई इच्छामृत्यु जब रोगी अपनी सहमति देने में पूर्णतः असमर्थ हो (जैसे-कोमा की स्थिति)।
- सहायता प्राप्त आत्महत्या: चिकित्सक रोगी को आत्महत्या करने के लिए साधन (जैसे दवाइयाँ) उपलब्ध कराता है।
इच्छामृत्यु या सहायता प्राप्त मृत्यु को कानूनी मान्यता देने वाले देश
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लिविंग विल (Living Will) क्या है?
- लिविंग विल, जिसे अग्रिम चिकित्सा निर्देश (Advance Medical Directive–AMD) भी कहा जाता है, एक कानूनी दस्तावेज है जिसे कोई मानसिक रूप से सक्षम वयस्क व्यक्ति तैयार करता है। इसमें वह व्यक्ति उन शर्तों का उल्लेख करता है जिनके तहत वह गंभीर रूप से बीमार होने या ठीक होने की कोई उम्मीद न होने पर चिकित्सा उपकरणों की सहायता से कृत्रिम रूम से जीवन को बनाए न रखने की अपनी इच्छा को व्यक्त करता है।
- उद्देश्य: यह व्यक्तियों को जीवन के अंतिम चरण में अपने चिकित्सकीय उपचार पर स्वायत्तता का अधिकार देता है, ताकि जब वे स्वयं अपनी इच्छा व्यक्त करने में असमर्थ हों, तब भी उनकी इच्छाओं का सम्मान किया जा सके।
- भारत में कानूनी स्थिति: सर्वोच्च न्यायालय ने कॉमन कॉज़ बनाम भारत संघ (2018) तथा इसके बाद 2023 के निर्णयों में लिविंग विल को मान्यता दी है और इसके निर्माण व क्रियान्वयन हेतु एक ढाँचा निर्धारित किया। इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण मृत्यु के मूल अधिकार से जोड़ा गया है।
इससे जुड़ी प्रमुख चिंताएँ
यद्यपि इसका आशय बहुत उदार प्रकृति का है, तथापि भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु और लिविंग विल के क्रियान्वयन में कई गंभीर बाधाएँ हैं:
- जटिल और अव्यावहारिक प्रक्रिया: प्रक्रिया में दो स्वतंत्र मेडिकल बोर्डों (प्राथमिक और द्वितीयक) की पुष्टि आवश्यक है। यदि दोनों चिकित्सा बोर्ड असहमत हो जाते हैं, तो एकमात्र विकल्प उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करना बचता है, जो अधिकांश परिवारों के लिए अत्यंत कठिन और महँगा कानूनी संघर्ष बन जाता है।
- प्रशासनिक ढाँचे का अभाव: 2025 के मध्य तक केवल कुछ ही राज्यों (गोवा, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र) ने आवश्यक नियम अधिसूचित किए हैं और लिविंग विल के संरक्षण व पुनर्प्राप्ति हेतु संरक्षकों की नियुक्ति की है। भारत के अधिकांश हिस्सों में यह बुनियादी ढाँचा ही मौजूद नहीं है।
- परिभाषाओं में अस्पष्टता: न्यायालयों द्वारा परिभाषित “जीवन रक्षक उपचार” स्पष्ट नहीं है जिससे इसकी व्याख्याओं में कठिनाई आती है।
- हरीश राणा के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु से इनकार कर दिया क्योंकि वे वेंटिलेटर पर नहीं, बल्कि फीडिंग ट्यूब पर थे। इससे यह भ्रम पैदा हुआ कि कौन-सा चिकित्सकीय समर्थन हटाया जा सकता है।
- दुरुपयोग और नैतिक दुविधाएँ: आशंका व्यक्त की जाती है कि परिवार द्वारा आर्थिक या अन्य कारणों से कमजोर रोगियों (वृद्ध, दिव्यांग) पर लिविंग विल बनाने का दबाव डाला जा सकता है। साथ ही, जीवन की रक्षा की शपथ लेने वाले चिकित्सकों के लिए यह एक गंभीर नैतिक द्वंद्व उत्पन्न करता है।
- कम जागरूकता और सामाजिक कलंक: लिविंग विल की वैधता को लेकर जन-जागरूकता बहुत कम है। इसके अतिरिक्त, मृत्यु और जीवन की पवित्रता से जुड़े गहरे सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वर्जनाएँ भी बाधक हैं।
भारत में इसकी व्याख्या कैसे की गई है?
भारत में इच्छामृत्यु से संबंधित कानून का विकास सर्वोच्च न्यायालय के कुछ प्रमुख निर्णयों से हुआ है:
- अरुणा शानबाग वाद (2011): सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ विशेष परिस्थितियों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी, लेकिन सक्रिय इच्छामृत्यु को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को औपचारिक रूप से वैधता प्रदान नहीं की, बल्कि कुछ दिशानिर्देश प्रदान किए गए।
- कॉमन कॉज़ बनाम भारत संघ (2018): संविधान पीठ ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु और लिविंग विल की अवधारणा को वैध ठहराया। दुरुपयोग रोकने के लिए कड़े प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय तय किए गए, जिनमें न्यायिक निगरानी भी शामिल थी।
- 2023 में पाँच-न्यायाधीशों की पीठ का निर्णय: इस निर्णय में 2018 के दिशा-निर्देशों को कुछ हद तक शिथिल किया गया। लिविंग विल के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को सरल बनाया गया और न्यायिक मजिस्ट्रेट की भूमिका कम करते हुए मेडिकल बोर्डों को अधिक जिम्मेदारी सौंपी गई। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) में गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी निहित है।
भारत में इच्छामृत्यु के प्रावधानों को कैसे सरल बनाया जा सकता है?
कानूनी अधिकार और व्यावहारिक वास्तविकता के बीच की खाई को पाटने के लिए एक बड़े बदलाव की आवश्यकता है:
- विधायी कार्रवाई: संसद को सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के आधार पर एक स्पष्ट और व्यापक कानून बनाना चाहिए, ताकि जटिल न्यायिक निर्देशों के स्थान पर एक सरल वैधानिक प्रक्रिया लागू हो। इससे सभी राज्यों में एक समान कानूनी प्रक्रिया को लागू किया जा सकेगा।
- प्रक्रियाओं का सरलीकरण: नौकरशाही बाधाओं को समाप्त करने की आवश्यकता है। प्रक्रिया मुख्य रूप से उपचार करने वाले चिकित्सक, परिवार और अस्पताल की नैतिकता समिति तक सीमित होनी चाहिए। केवल विवाद की स्थिति में ही उच्च न्यायालय की अनुमति आवश्यक हो।
- मजबूत प्रशासनिक ढाँचे का निर्माण: सभी राज्यों को तत्काल और अनिवार्य रूप से नियम अधिसूचित करने, संरक्षकों की नियुक्ति करने और अग्रिम निर्देशों के लिए केंद्रीकृत व सुलभ डिजिटल रजिस्ट्री बनाने की आवश्यकता है।
- परिभाषाओं में स्पष्टता: कानून में “लाइलाज बीमारी”, “स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था” और “जीवन-रक्षक उपचार” (जिसमें कृत्रिम पोषण/जल आदि स्पष्ट रूप से फीडिंग ट्यूब के माध्यम से ही दिया जाए) की सटीक परिभाषाएँ होनी चाहिए, ताकि न्यायिक अस्पष्टता को समाप्त किया जा सके।
- जागरूकता और संवेदनशीलता को बढ़ावा: गरिमापूर्ण मृत्यु के विकल्प से जुड़ी सामाजिक वर्जनाओं को कम करने के लिए लिविंग विल के बारे में जन-सूचना अभियान चलाए जाने चाहिए तथा चिकित्सकों, न्यायाधीशों और सरकारी अधिकारियों के लिए अनिवार्य नैतिक प्रशिक्षण आयोजित किये जानें चाहिए।
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