भारतीय कृषि का विडंबनापूर्ण संकट: बढ़ता आयात, घटता अधिशेष और प्रमुख चुनौतियाँ
भारत में रिकॉर्ड कृषि उत्पादन के बावजूद आयात क्यों बढ़ रहा है? जानिए भारतीय कृषि का विडंबनात्मक मेल, कृषि व्यापार अधिशेष में गिरावट, भूमि जोत विखंडन, ऋणग्रस्तता, निम्न उत्पादकता, जल तनाव, और नीतिगत कारणों से पैदा हुई चुनौतियाँ। साथ ही, समझें सरकार द्वारा उठाए गए कदम और आगे की राह।
भारतीय कृषि में समृद्धि और संकट का विडंबनात्मक मेल – कारण, चुनौतियाँ और समाधान
वाणिज्यिक जानकारी एवं सांख्यिकी महानिदेशालय (DGCI&S) के नवीनतम आँकड़े भारत के कृषि व्यापार में एक चिंताजनक प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हैं।
भारत में कृषि क्षेत्र क्यों आवश्यक है?
- भारत का कृषिक्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था की आधारशिला होने के साथ साथ उसके समग्र सामाजिक–आर्थिक ढाँचे का अत्यंत महत्वपूर्ण स्तंभ भी है। यह 1.4 अरब से अधिक जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
- यह देश का सबसे बड़ा रोज़गार प्रदाता है, जो लगभग आधे कार्यबल को आजीविका प्रदान करता है।
- इसके अतिरिक्त, एक सुदृढ़ कृषिक्षेत्र राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है और निरंतर व्यापार अधिशेष (trade surplus) उत्पन्न करके भारत के भुगतान संतुलन को स्थिर बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है। यह अधिशेष ऊर्जा जैसे अन्य क्षेत्रों में होने वाले घाटों की भरपाई करने में भी सहायक होता है।
कृषि क्षेत्र में क्या विरोधाभास देखा गया है?
- भारत के कृषि क्षेत्र में एक उल्लेखनीय विरोधाभास दिखाई देता है। यह विरोधाभास उस स्थिति से जुड़ा है, जहाँ एक ओर देश में कृषि उत्पादन अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुँच रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रमुख वस्तु क्षेत्रों में आयात तीव्र गति से बढ़ रहा है।
- खाद्यान्न और बागवानी के ऐतिहासिक रूप से सर्वाधिक उत्पादन के बावजूद, कृषि क्षेत्र का शुद्ध अधिशेष निरंतर सिमटता जा रहा है। जहाँ कृषि निर्यात स्थिर बना हुआ है, वहीं कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का आयात वर्ष 2022‑23 में 33.79 अरब डॉलर से बढ़कर 2024‑25 में 36.96 अरब डॉलर तक पहुँच गया है।
- भारत एक ओर गेहूँ और धान जैसी प्रमुख खाद्यान्न फसलों की प्रचुर उपज का उत्सव मनाता है, तो दूसरी ओर कृषि व्यापार अधिशेष घट रहा है, क्योंकि देश अब खाद्य तेलों, फलों, मेवों तथा कोको उत्पादों जैसी अधिक मूल्यों वाली वस्तुओं का अधिक आयात कर रहा है।
- देश के पास इन वस्तुओं के उत्पादन हेतु उपयुक्त प्राकृतिक संसाधन और सक्षम कृषक‑क्षमता उपलब्ध है, फिर भी आर्थिक तथा नीतिगत ढाँचा ऐसा है कि इन वस्तुओं का घरेलू स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक उत्पादन तंत्र विकसित करने की तुलना में उन्हें आयात करना अधिक सरल और किफ़ायती साबित हो रहा है।
भारत में कृषि क्षेत्र की अन्य प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
व्यापार–विरोधाभास से इतर, भारत का कृषिक्षेत्र अनेक प्रकार की जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है—
- खंडित भूमि जोत: छोटी और बिखरी हुई भूमि जोत पैमाने की अर्थव्यवस्था और मशीनीकरण में बाधा डालती है। आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार , लगभग 85% भूमि जोत 2 हेक्टेयर से कम है, जिसमें क्रमशः वृद्धि हो रही है क्योंकि बढ़ते कृषि ऋणों के प्रबंधन के लिए भूमि को संपार्श्विक के रूप में अलग कर दिया जाता है- जिसका उल्लेख भारतीय रिज़र्व बैंक के कृषि ऋण पर अआधारित कार्यदल ने किया है।
- ऋणग्रस्तता और कृषि संकट: कृषि–इनपुट लागत की अधिकता और बाज़ार मूल्यों में अस्थिरता के कारण किसान अक्सर ऋण के दुष्चक्र में फँस जाते हैं।
- निम्न उत्पादकता: कई फ़सलों की उत्पादकता वैश्विक औसत से कम है। इसका बड़ा कारण कृषि यांत्रिकीकरण का अभाव है—जो स्वयं भूमि–जोत के विखंडन के कारण सीमित रह गया है।
- कटाई के बाद होने वाले नुकसान: शीत–भंडारण, गोदामों और परिवहन अवसंरचना की कमी के कारण बड़ी मात्रा में कृषि–उपज नष्ट हो जाती है। नाबार्ड कंसल्टेंसी सर्विसेज (नैबकॉन्स) के अनुसार, भंडारण की कमी के कारण 20% से अधिक कृषि उत्पादन प्रभावित होता है (चावल और गेहूँ के मामले में यह नुकसान लगभग 35% तक पहुँच जाता है)।
- जल तनाव: भूजल के अत्यधिक दोहन और अलाभकारी सिंचाई पद्धतियाँ स्थायित्व के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं।
- जलवायु परिवर्तन: सूखा, बाढ़ और अनियमित मौसम की घटनाओं में वृद्धि कृषि–चक्र को बाधित करती है। आर्थिक सर्वेक्षण 2024–25 ने इंगित किया है कि हीटवेव भारत में घटती कृषि–उत्पादन क्षमता के कारण खाद्य मुद्रास्फीति की एक प्रमुख वजह बन गई है।
ऐसी समस्याओं के पीछे प्रमुख कारण क्या हैं?
इन चुनौतियों की जड़ें नीतिगत ढाँचे और बाज़ार संरचना में गहराई से निहित हैं-
- सब्सिडी-संचालित फसल पैटर्न: न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तथा रियायती उर्वरक जैसी नीतियाँ किसान को गेहूँ–चावल जैसी अधिक जल–गहन मुख्य फ़सलों की ओर अत्यधिक प्रोत्साहित करती हैं, जबकि फल, दालें, तिलहन जैसी उच्च-मूल्य एवं पोषक फ़सलों की उपेक्षा होती है।
- इससे एक “फसल जाल” बन जाता है, जहां किसानों के विकल्प बाजार की मांग के बजाय सब्सिडी–सुरक्षा से प्रेरित होते हैं।
- सुरक्षा वाल्व के रूप में आयात: सरकार घरेलू खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए टैरिफ कटौती और आयात में ढील देती है, जो अल्पकालिक रूप से कारगर होते हैं परन्तु इससे दीर्घकालिक निजी निवेश कम होता है और विविधीकृत घरेलू आपूर्ति श्रृंखलाएँ मजबूत नहीं हो पातीं।
- प्रतिस्पर्धात्मकता की अपेक्षा स्थिरता पर नीतिगत ध्यान: कृषि नीति ने ऐतिहासिक रूप से दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धात्मकता, गुणवत्ता उन्नयन और निर्यात अभिविन्यास को बढ़ावा देने की अपेक्षा मूल्य स्थिरीकरण और राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी है।
- कमजोर बाजार संपर्क: किसानों के पास सीधे प्रसंस्कर्ताओं और खुदरा विक्रेताओं तक पहुँच का अभाव होता है, जिससे वे अक्सर निरंतर गुणवत्ता और समय पर आपूर्ति के लिए आयातों पर निर्भर हो जाते हैं।
इन मुद्दों के समाधान के लिए क्या उपाय किए गए हैं?
सरकार ने इन संरचनात्मक समस्याओं के समाधान के लिए अनेक योजनाओं की शुरुआत की है।
- पीएम-आशा (प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान): इस योजना का उद्देश्य मूल्य कमी भुगतान जैसी व्यवस्थाओं के माध्यम से किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य प्राप्त कराना है।
- राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन – ऑयल पाम (एनएमईओ-ओपी): इस पहल का लक्ष्य देश में तिलहनों के उत्पादन को बढ़ाना तथा खाद्य तेलों के भारी आयात बिल को कम करना है।
- कृषि अवसंरचना निधि (एआईएफ): इस योजना के अंतर्गत कटाई के बाद प्रबंधन हेतु भंडारण गृहों, कोल्ड स्टोरेज तथा अन्य अवसंरचना सुविधाओं के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
- एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) का गठन: इस पहल का उद्देश्य किसानों को संगठित कर सामूहिक रूप से उनके उत्पादन की लागत घटाना और विपणन तक बेहतर पहुँच सुनिश्चित करना है।
- बागवानी क्लस्टरों को बढ़ावा देना: यह कार्यक्रम उच्च मूल्य वाली उद्यानिकी फसलों की उत्पादकता बढ़ाने और उनके मूल्य संवर्द्धन को प्रोत्साहित करने पर केंद्रित है।
आगे की राह:
वर्तमान प्रवृत्ति को उलटने के लिए एक बहु-आयामी रणनीति अपनाने की आवश्यकता है—
- सब्सिडियों का पुनर्संयोजन: इनपुट–सब्सिडी के बजाय प्रोत्साहनों को प्रत्यक्ष आय समर्थन, फसल–विविधीकरण, मृदा–स्वास्थ्य और जल–संरक्षण को बढ़ावा देने वाले निवेशों की ओर मोड़ना आवश्यक है।
- गुणवत्ता–अवसंरचना का निर्माण: अपशिष्ट को कम करने तथा वैश्विक मानकों को पूरा करने के लिए शीत श्रृंखलाओं, लॉजिस्टिक्स और गुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशालाओं में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक और निजी निवेश महत्वपूर्ण है।
- पूर्वानुमानित व्यापार नीति: अचानक लगाए जाने वाले आयात–प्रतिबंधों या शुल्क–कटौतियों की जगह स्थिर और पूर्वानुमेय शुल्क–नीति अपनाई जानी चाहिए, ताकि घरेलू निवेशकों को नीतिबद्ध निश्चितता मिल सके।
- मूल्य संवर्धन पर संकेन्द्रण: उत्पादन–लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना के माध्यम से खाद्य–प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि विविधीकृत कृषि–उत्पादों की निरंतर मांग तैयार हो।
- अनुसंधान एवं विकास (R&D) को सशक्त बनाना: दालों, तिलहनों और मोटे अनाजों की उच्च–उपज, जलवायु–सहिष्णु किस्मों के विकास हेतु अनुसंधान में अधिक निवेश किया जाना चाहिए।
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