सर्वोच्च न्यायालय का सेना अनुशासन पर फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुद्वारे में प्रवेश से इनकार करने वाले सेना अधिकारी की बर्खास्तगी को सही ठहराते हुए कहा कि सैन्य अनुशासन, यूनिट सामंजस्य और Article 33 के तहत लगाए गए प्रतिबंध व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता से ऊपर हैं। जानिए—आर्टिकल 33 क्या है, सेना में अधिकारों की सीमाएँ, अनुशासन की आवश्यकता और पिछले उदाहरण।
सर्वोच्च न्यायालय का सेना अनुशासन पर फैसला | Article 33, Army Act व धार्मिक स्वतंत्रता का संतुलन
गुरुद्वारे में प्रवेश करने से इनकार करने पर एक ईसाई सेना अधिकारी की बर्खास्तगी को बरकरार रखने वाले सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले ने भारत के सशस्त्र बलों के भीतर व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता और संस्थागत अनुशासन के बीच संतुलन पर बहस को फिर से शुरू कर दिया है।
भारत के संविधान में कुछ प्रतिबंध क्यों जोड़े गए?
- अधिकारों और राष्ट्रीय सुरक्षा के संतुलन की आवश्यकता: संविधान निर्माताओं ने माना था कि मौलिक अधिकार पूर्ण नहीं हो सकते, विशेषकर तब जब राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और संस्थागत अनुशासन दांव पर हो।
- संविधान सभा की बहसों (1948-49) में इस बात पर बल दिया गया कि कुछ संस्थाओं – सेना, अर्धसैनिक बल, खुफिया एजेंसियां और पुलिस – को प्रभावी ढंग से काम करने के लिए अनुशासन और सामंजस्य के उच्च मानकों की आवश्यकता होती है।
- संवैधानिक दर्शन: संविधान के अनुच्छेद 19(2) से 19(6) तक पहले से ही सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के हित में उचित प्रतिबंध लगाने में सक्षम हैं। हालाँकि, सशस्त्र बलों के अद्वितीय अधिदेश को देखते हुए, व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर कुछ अतिरिक्त संवैधानिक सीमाएँ आवश्यक मानी गईं ताकि संचालन क्षमता को व्यक्तिगत अधिकारों पर प्राथमिकता दी जा सके।
भारत के संविधान का आर्टिकल 33 क्या है?
- मूल अधिकारों में संशोधन का संसदीय अधिकार: अनुच्छेद 33 संसद को यह शक्ति देता है कि वह निम्न से संबंधित व्यक्तियों के मूल अधिकारों को सीमित या निरस्त कर सके— आर्म्ड फोर्सेज़, पुलिस बल, खुफिया एजेंसियाँ और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने वाले बल। इसका उद्देश्य इन सेवाओं में अनुशासन, कर्तव्यपालन और संचालन क्षमता सुनिश्चित करना है।
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प्रमुख विशेषताऐं
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- अधिकारों को केवल संसद द्वारा सीमित किया जा सकता है, कार्यकारी आदेश द्वारा नहीं।
- ऐसे प्रतिबंध आवश्यक होने चाहिए, मनमाने नहीं।
- ये प्रतिबंध विशेष रूप से वर्दीधारी सेवाओं में कार्यरत व्यक्तियों पर लागू होते हैं। सैन्य अधिनियम, 1950, सीआरपीएफ अधिनियम, 1949 और पुलिस अधिनियम जैसे वैधानिक उपकरण इन प्रतिबंधों को लागू करते हैं।
अनुच्छेद 33 सेना तथा पुलिस अधिकारियों के अधिकारों को कैसे प्रभावित करता है?
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- कुछ मूल अधिकारों पर सीमाएँ लगाने का प्रावधान: अनुच्छेद 33 के तहत निम्न मूल अधिकारों पर आवश्यकतानुसार प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं—
- अनुच्छेद 19 — अभिव्यक्ति, सभा और संगठन की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (विशेषकर परिचालन क्षेत्रों में ‘न्यायिक प्रक्रिया’ के दायरे में सीमित विस्तार)
- अनुच्छेद 25 — धर्म की स्वतंत्रता (जहाँ लागू हो)
- कुछ मूल अधिकारों पर सीमाएँ लगाने का प्रावधान: अनुच्छेद 33 के तहत निम्न मूल अधिकारों पर आवश्यकतानुसार प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं—
- सर्विस लॉ में एप्लीकेशन: आर्मी एक्ट, 1950 (धारा 41) के अनुसार किसी वैध आदेश की अवहेलना करना एक दंडनीय अपराध है। इसी प्रकार, पुलिस बलों पर विभिन्न राज्य पुलिस अधिनियमों तथा केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमों के तहत विशेष प्रतिबंध लागू होते हैं। ये प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि:
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- सैनिक इकाइयों में एकता और सामंजस्य बनी रहे।
- रेजिमेंटों का धर्मनिरपेक्ष संचालन सुनिश्चित हो।
- व्यक्तिगत पसंद और पेशेवर कर्तव्य के बीच कोई संघर्ष न हो।
सुरक्षा अधिकारियों पर इस प्रकार के अतिरिक्त प्रतिबंध क्यों लगाए गए हैं?
- संचालन में एकता और अनुशासन बनाए रखना: सुरक्षा बल ऐसे माहौल में काम करते हैं जहाँ हर क्षण चुनौतीपूर्ण और जोखिमपूर्ण होता है। यदि अनुशासन में रिक्तियां या धर्म आधारित मतभेद उत्पन्न हों, तो मिशन असफल हो सकता है। कारगिल समीक्षा समिति की रिपोर्ट (1999) ने इस बात पर ज़ोर दिया कि आंतरिक एकजुटता युद्ध प्रभावशीलता के लिए महत्वपूर्ण है।
- सेना का धर्मनिरपेक्ष चरित्र: भारतीय सेनाएँ एक ऐसी रेजिमेंटल परंपरा का पालन करती हैं जो धर्मनिरपेक्ष होने के साथ-साथ सैन्य विविधता के प्रति भी संवेदनशील है। अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे बहु-धर्मिक इकाइयों में उदाहरण प्रस्तुत करें। व्यक्तिगत धार्मिक व्याख्या संस्थागत आवश्यकताओं को प्राथमिकता नहीं दे सकती।
क्या सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारत के संविधान के अनुरूप है?
- अनुच्छेद 33 और आर्मी एक्ट पर आधारित न्यायिक तर्क: हाँ। न्यायालय ने अधिकारी की बर्खास्तगी को उचित ठहराया क्योंकि—
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- रेजिमेंटल परंपराओं में भाग लेने का आदेश वैध था।
- सेना अधिनियम, 1950 की धारा 41 के तहत इनकार करना अनुशासनहीनता माना जाएगा।
- अनुच्छेद 25 के अधिकार पूर्ण नहीं थे; अनुच्छेद 33 के तहत सशस्त्र बलों के लिए उनमें कटौती की जा सकती है।
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- न्यायिक दृष्टिकोण: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया:
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- अधिकारी के आचरण ने यूनिट के मनोबल को कमज़ोर कर दिया।
- उसने वरिष्ठ अधिकारियों और पादरियों की सलाह की अवहेलना की, जिससे सैन्य अनुशासन का पालन करने की अनिच्छा झलकती है।
- सुरक्षा बलों को एक समान, धर्मनिरपेक्ष चरित्र बनाए रखना चाहिए।
इस प्रकार, यह निर्णय संवैधानिक रूप से सुसंगत और संस्थागत रूप से आवश्यक है।
क्या यह पहली बार है जब ऐसे अनुशासनात्मक कदम उठाए गए हैं?
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नहीं—सभी सेवाओं में ऐसे उदाहरण पहले भी मौजूद हैं।
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- केस स्टडी: बागपत पुलिस अधिकारी (2018): उत्तर प्रदेश के एक पुलिस उप-निरीक्षक को अनधिकृत दाढ़ी रखने पर निलंबित किया गया था। सेवा नियमों के अनुसार, मुस्लिम पुलिस अधिकारियों को दाढ़ी रखने के लिए पूर्व अनुमति लेनी होती है। अधिकारी ने आचरण मानदंडों का उल्लंघन किया, जो दर्शाता है कि व्यक्तिगत धार्मिक अभिव्यक्ति को सेवा अनुशासन के अधीन रखा जा सकता है।
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अन्य उदाहरण:
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- रक्षा कर्मियों को पहले भी सेवा अनुष्ठानों से जुड़े वैध आदेशों को अस्वीकार करने के लिए दंडित किया जा चुका है।
- अर्धसैनिक बलों के कठोर पोशाक और आचरण संबंधी नियम अनुच्छेद 33 के निरंतर पालन को दर्शाते हैं।
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